प्रतिदिन वह रमेश बाबू के आवास के मुख्य द्वार के सामने चलती साइकिल से निकलते हुए अख़बार फेंकता और उनको 'नमस्ते बाबू जी' बोलकर अभिवादन करता हुआ फर्राटे से आगे बढ़ जाता था।
क्रमश: समय बीतने के साथ रमेश बाबू के सोकर उठने का समय बदलकर प्रात: 7:00 बजे हो गया।
जब कई दिनों तक रमेश बाबू उस अखबार वाले को प्रात: टहलते नहीं दिखे तो एक रविवार को प्रात: लगभग 9:00 बजे वह उनका कुशल-क्षेम लेने उनके आवास पर आ गया।
तब उसे ज्ञात हुआ कि घर में सब कुशल- मंगल है, रमेश बाबू बस यूँ ही देर से उठने लगे थे ।
वह बड़े सविनय भाव से हाथ जोड़ कर बोला, "बाबू जी! एक बात कहूँ?"
रमेश बाबू ने कहा... "बोलो"
वह बोला... "आप सुबह तड़के सोकर जगने की अपनी इतनी अच्छी आदत को क्यों बदल रहे हैं? आपके लिए ही मैं सुबह तड़के विधानसभा मार्ग से अख़बार उठा कर और फिर बहुत तेज़ी से साइकिल चलाकर आप तक अपना पहला अख़बार देने आता हूँ...सोचता हूँ कि आप प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"
रमेश बाबू ने विस्मय से पूछा...अरे तुम ! विधान सभा मार्ग से अखबार लेकर आते हो....इतनी दूर से ?"
“हाँ ! सबसे पहला वितरण वहीं से प्रारम्भ होता है ," उसने उत्तर दिया।
“तो फिर तुम जगते कितने बजे हो?" रमेश बाबू ने पूछा ।
“ढाई बजे.... फिर साढ़े तीन तक वहाँ पहुँच जाता हूँ।"
“फिर ?" रमेश बाबू ने जानना चाहा ।
“फिर लगभग सात बजे अख़बार बाँटकर घर वापस आकर सो जाता हूँ..... फिर दस बजे कार्यालय...... अब बच्चों को बड़ा करने के लिए ये सब तो करना ही होता है।”
रमेश बाबू कुछ पलों तक उसकी ओर देखते रह गए और फिर बोले, “ठीक! तुम्हारे बहुमूल्य सुझाव को अवश्य ध्यान में रखूँगा।"
घटना को लगभग पन्द्रह वर्ष बीत गये।
एक दिन प्रात: नौ बजे के लगभग वह अखबार वाला रमेश बाबू के आवास पर आकर एक निमंत्रण-पत्र देते हुए बोला, “बाबू जी! बिटिया का विवाह है..... आप को सपरिवार आना है।“
निमंत्रण-पत्र के आवरण में अभिलेखित सामग्री को रमेश बाबू ने सरसरी निगाह से जो पढ़ा तो संकेत मिला कि किसी डाक्टर लड़की का किसी डाक्टर लड़के से परिणय का निमंत्रण था। तो जाने कैसे उनके मुँह से निकल गया, “तुम्हारी लड़की ?"
उसने भी जाने उनके इस प्रश्न का क्या अर्थ निकाल लिया कि विस्मय के साथ बोला, “कैसी बात कर रहे हैं, बाबू जी! मेरी ही बेटी।"
रमेश बाबू अपने को सम्भालते हुए और कुछ अपनी झेंप को मिटाते हुए बोले , “नहीं! मेरा तात्पर्य कि अपनी लड़की को तुम डाक्टर बना सके, इसी प्रसन्नता में वैसा कहा।“
“हाँ बाबू जी! मेरी लड़की ने एमबीबीएस किया है और उसका होने वाला पति भी एमडी है ....... और बाबू जी! मेरा लड़का इंजीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का छात्र है।”
रमेश बाबू किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े सोच रहे थे कि उससे अन्दर आकर बैठने को कहूँ कि न कहूँ कि वह स्वयम् बोला, “अच्छा बाबू जी! अब चलता हूँ..... अभी और कई कार्ड बाँटने हैं...... आप लोग आइयेगा अवश्य।"
रमेश बाबू ने भी फिर सोचा... आज अचानक अन्दर बैठने को कहने का आग्रह मात्र एक छलावा ही होगा। अत: औपचारिक नमस्ते कहकर उन्होंने उसे विदाई दे दी।
उस घटना के दो वर्षों के बाद जब वह पुनः रमेश बाबू के आवास पर आया तो ज्ञात हुआ कि उसका बेटा जर्मनी के किसी नामी कंपनी में कहीं कार्यरत था।
उत्सुक्तावश रमेश बाबू ने उससे प्रश्न कर ही डाला कि आखिर उसने अपनी सीमित आय में रहकर अपने बच्चों को वैसी उच्च शिक्षा कैसे दे डाली?
उसने कहना शुरू किया....“बाबू जी! इसकी बड़ी लम्बी कथा है , फिर भी कुछ आपको बताए देता हूँ। अख़बार, नौकरी के अतिरिक्त भी मैं ख़ाली समय में कुछ न कुछ कमा लेता था । साथ ही अपने दैनिक व्यय पर इतना कड़ा अंकुश कि भोजन में सब्जी के नाम पर रात में बाज़ार में बची खुची कद्दू, लौकी, बैंगन जैसी मौसमी सस्ती-मद्दी सब्जी को ही खरीदकर घर पर लाकर बनायी जाती थी। एक दिन मेरा लड़का परोसी गयी थाली की सामग्री देखकर रोने लगा और अपनी माँ से बोला, 'ये क्या रोज़ बस वही कद्दू, बैंगन, लौकी, तरोई जैसी नीरस सब्ज़ी... रूख़ा-सूख़ा ख़ाना...... ऊब गया हूँ इसे खाते-खाते। अपने मित्रों के घर जाता हूँ तो वहाँ मटर-पनीर, कोफ़्ते, दम आलू आदि....। और यहाँ कि बस क्या कहूँ!!'"
मैं सब सुन रहा था तो रहा न गया और मैं बड़े उदास मन से उसके पास जाकर बड़े प्यार से उसकी ओर देखा और फिर बोला, "पहले आँसू पोंछ फिर मैं आगे कुछ कहूँ।"
मेरे ऐसा कहने पर उसने अपने आँसू स्वयम् पोछ लिये। फिर मैं बोला, *"बेटा! सिर्फ़ अपनी थाली देख। दूसरे की देखेगा तो तेरी अपनी थाली भी चली जायेगी...... और सिर्फ़ अपनी ही थाली देखेगा तो क्या पता कि तेरी थाली किस स्तर तक अच्छी होती चली जाये। इस रूख़ी-सूख़ी थाली में मैं तेरा भविष्य देख रहा हूँ। इसका अनादर मत कर। इसमें जो कुछ भी परोसा गया है उसे मुस्करा कर खा ले ....।"
उसने फिर मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा और जो कुछ भी परोसा गया था खा लिया। उसके बाद से मेरे किसी बच्चे ने मुझसे किसी भी प्रकार की कोई भी माँग नहीं रखी । बाबू जी! आज का दिन मेरे बच्चों के उसी त्याग औऱ तपस्या का परिणाम है।
उसकी बातों को रमेश बाबू बड़ी तन्मयता के साथ लगातार चुपचाप सुनते रहे औऱ बस यही सोचते रहे कि आज के बच्चों की कैसी मानसिकता है कि वे अपने अभिभावकों की हैसियत पर दृष्टि डाले बिना उन पर लगातार अपनी ऊटपटाँग माँगों का दबाव डालते रहते हैं............!!
कोई इस दिल का हाल क्या जाने...
एक ख़्वाहिश हज़ार तह-ख़ाने...!!!